राजेश मिश्रा /कानपुर/ किसी शायर ने शायद सच ही कहा था कि मौत से भूख बड़ी होती है सुबह विदा करो शाम खड़ी होती है ,और इस भूख को मिटाने का काम करती है दाल और रोटी / गेहूं के भाव तो यू पी ए सरकार के कार्यकाल में ही महंगाई के शीर्ष आसन पर पहुच चुके थे लेकिन मोदी के कार्यकाल में दाल के दामों में हुई बेतहाशा वृद्धि ने तो आम आदमी की थाली से दाल को गाएब ही कर दिया/ देखते ही देखते दाल के दाम ८० -१०० से बढ़कर २०० व २२० रूपये प्रति किलो पहुँच गए थे और जनता इसे लेकर महीनों से त्रस्त थी लेकिन बावजूद इसके केंद्र व प्रदेश सरकार के कानों में जूँ तक नहीं रेंगी और सरकार की इस नाज़रंदाज़ी का भरपूर फायदा उठाया जमा खोरों ने और महीनो से देश की जनता को लूट कर अपनी तिजोरियां भरने में मशगूल रहे हालांकि दाल के दामों में बढौतरी की वजह व्यापारी फसलों का संकट बता रहे थे लेकिन पिछले दिनों एक साथ पकड़ी गयी जमा खोरी कर रखी गयी टनों की मात्र में छापा मारी कर पकड़ी गयी दाल के ज़खीरे के बाद खाद्य व्यापारियों के बीच कुछ ऐसा हडकंप मचा की देखते ही देखते दाल का यह भाव मात्र एक हफ्ते के अंतर में १३० रूपये किलो पर आ कर ठहर गया और हालत यह हो गयी की छापेमारी के डर से अब डाल व्यापारी कैम्प लगा कर जनता को सस्ती दाल उपलब्ध कराने में जुट गए हैं /इस सन्दर्भ में जब दाल मिल एसोसिएशन के अध्यक्ष मिथिलेश गुप्ता से पूछा गया तो पहले तो वह बगलें झांकते नज़र आये और फिर खिसियानी बिल्ली जैसा मुंह खोल कर बोले कि विदेशों से दाल आयात होकर आगई है इसी लिए जनता को सस्ते दामों पर दाल उपलब्ध कराई जारही है /सवाल यह उठता है कि केंद्र सरकार ने जब एक माह पूर्व ही विदेशों से दाल आयात कर बम्बई व चेन्नई के बंदरगाहों पर उतरवा दिया था तो उस डाल को व्यापारियों तक पहुचने में इतना समय कैसे लग गया /हकीकत कुछ भी हो इसका खुलासा तो देर सवेर हो ही जाए गा लेकिन दाल के इस कृत्रिम संकट ने जमा खोरों के चेहरों को एकबार फिर से बेनकाब करने का काम किया है वहीँ सरकार को भी जनता के बीच कटघरे में लाकर खडा कर दिया है कि आखिर महंगाई के मुद्दे पर जनादेश हासिल कर देश व प्रदेश की संसद व विधान सभा पहुंची राजनैतिक पार्टियों को मुल्क के नागरिकों के निवाले की कितनी चिंता सताती है ?